शनिवार, 7 अप्रैल 2007
क्रिकेटीय नीतियाँ, और नए-नए शगूफ़े
शुरुआत में कुछ भड़ास निकालना चाहता था पर फिर इच्छा हुई कि भारतीय टीम और गुरु ग्रैग की रणनीति की प्रशंसा करूँ इसलिए पोस्ट में दोनों चीज़े शामिल कर लीं, पर क्रिकेट भक्ति तो आपको अंत में ही दिखेगी। तो ''श्री क्रिकेटाय नमः''...2003 के वर्ल्डकप में आख़िरी कुछ ओवर्स में भारत की हार के बाद ही चैपल साहब ने संभवत: भारतीय टीम से जुड़ने का मन बना लिया था। वे ठहरे प्रयोगवादी और यदि नीतियों, नियमों, और मनुष्यों के बीच प्रयोग करना हो ऐसे प्रयोग भारत से अच्छे और भला कहाँ हो सकते हैं। आँकड़ों को देखें तो चैपल जी ने भारत की हार-जीत का अनुपात बराबर रखा है और उसे विदेशों में भी जीत का स्वाद चखाने का श्रेय ले गए हैं। आते ही उन्होंने नए खिलाड़ियों की ख़ूब भर्ती करवाई और राइट साहब के बनाए गए नए-नए उभरते खिलाड़ी (नाम आप सबको पता ही हैं) इनके प्रयोगों की बलि चढ़ते गए। एक कोच के तौर पर तो वाकई चैपल जी प्रशंसनीय है, किंतु उनके पट्टी-पहाड़े भारतीय बच्चों की समझ से परे हैं। वे कहें कि ''टू वन ज़ा टू, टू टूज़ा फ़ोर'' तो हमारे खिलाड़ी --- अरे क्षमा करें खिलाड़ी नहीं हमारे खेल बोर्ड में बैठे राजनीतिज्ञ कहते हैं ''दो एकम दो, दो दूनी पाँच''। अब भला मास्टर जी भी क्या करें उन्होंने सीखाया, खिलाड़ियों ने सीखा और समय-समय पर साबित भी किया पर बोर्ड में खेल कम और राजनीति व गुटबाज़ी के बयानों और मीडिया की महिमामंडित ख़बरों ने मतभेदों को मनभेदों में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी।वैसे मुझे 22 माह के कार्यकाल में एक पेंच और नज़र आता है कि कहीं चैपल जैसे गुणी खिलाड़ी के भारतीय क्रिकेट में आने से किस-किस को फ़ायदा हुआ है (बेशक बांग्लादेश को तो हुआ ही है)। शुरुआत मैनें 2003 वर्ल्डकप से की थी, तो फिर वहीं ले चलता हूँ। उस समय भारत की शुरुआत अच्छी नहीं रही पर फिर जिस तेज़ी और जूनून से भारतीय टीम फ़ाइनल तक पहुँची उससे ऑस्ट्रेलिया घबरा तो गया था पर फिर भी उन्होंने इस घबराहट का इलाज अपनी फ़ाइनल जीत के साथ ही ख़त्म किया। यदि भारत वह वर्ल्डकप बुरी तरह नहीं हारता तो आस्ट्रेलिया का सिक्का उतना नहीं चमकता जितना कि पिछले चार सालों में चमका है। क्योंकि भारत की उस टीम में लड़ने की कूवत थी, जो अब नहीं है अब बस किसी भी तरह जीतने की ललक है पर उसके लिए ज़रूरी लड़ाई मैदान पर लुप्त रहती है। चैपल जी के कार्यकाल ने दूसरा फ़ायदा वेस्टइंडीज़ को कराया जिन पर चैपल जी ने सोए हुए शेर का फिकरा कसा था। और ये तारीफ़ सुनकर जब वह जागा तो उसकी चिंघाड़ से सारे भारतीय दिग्गज गांधीजी के तीन बंदरों के मानिंद हो गए, आँख-कान-मुँह सब बंद। पाकिस्तान क्रिकेट को भी इस बात की ख़ुशी हुई कि कोच-खिलाड़ी-बोर्ड के विवाद केवल उसी देश में नहीं होते हैं बल्कि पड़ोसी भी हमारे साथ हैं। अब बचा श्रीलंका, तो उसे फ़ायदा हुआ चैपल की नीति का जिसमें उन्होंने सीनियर-जुनियर का राग अलापा था। लेकिन उसका असली फ़ायदा तो श्रीलंका को ही मिल पाया।क्रिकेट के महाकुंभ में सभी देश अमृतपान की अभिलाषा लिए आए थे, किंतु ये वर्ल्डकप वूल्मर साहब की मौत, और पहले ही दौर में भारत-पाकिस्तान की कड़ी पराजय का विष दे गया। इस पर भी कमी थी तो भारत के स्वदेश लौटने पर हार के पोस्टमॉर्टम की चर्चाएँ गरम हैं। बैठकें होंगी नया स्थायी कोच चुना जाएगा, कप्तान का भविष्य है तो पर कितना उज्वल यह पता नहीं। भारतीय चुनौती तो ख़त्म हो गई है पर अब भारतीय क्रिकेट प्रेमी नारे तो लगा ही सकते है पर वो नारे ऐसे होना चाहिए -- ''जीतेगा भाई जीतेगा, बांग्लादेश जीतेगा। जीतेगा भाई जीतेगा, श्रीलंका जीतेगा''। और अब क्रिकेट के दिग्गज हार की समीक्षा में एक नई सफ़ाई ये दे सकते हैं कि ''हमारी नज़रे सितंबर में होने वाले 20-20 वर्ल्डकप पर है, हम अपना सारा ध्यान उसमें जीतने पर लगा रहे हैं''। इसलिए सभी क्रिकेट प्रेमियों से अपील है कि अपनी ऊर्जा उस वर्ल्डकप ले लिए बचाकर रखें।मैं भी क्रिकेट प्रशंसक हूँ इसलिए एक बार और ''जीतेगा भाई जीतेगा, बांग्लादेश जीतेगा, जीतेगा भाई जीतेगा, श्रीलंका जीतेगा।''
सोमवार, 2 अप्रैल 2007
आरक्षण
नमस्कार सभी भारतीयों को, आप सभी का स्वागत है कलयुग की राजनीति में छिड़ चुके न्यायालय और विधायिका के बीच होने वाले वैचारिक द्वंद्व में, जिसमें दाँव पर लगा है अन्य पिछड़े वर्ग का उच्च शिक्षा में 27 प्रतिशत आरक्षण। दोनों ही पक्ष जी-जान से आरक्षण से मिलने वाले ईनाम के पीछे लगे हैं। राजनीति यह मुकाबला जीतकर वोटों की तालियाँ बटोरना चाहती है, वहीं न्यायालय संविधान का रक्षक होने का दायित्व पूर्णत: निभाना चाहता है। और इस द्वंद्व के रैफ़री है वे हज़ारों छात्र जो इस वार्षिक सत्र से आईआईएम और आईआईटी में अपनी उच्च शिक्षा का सपना पूरा करना चाह रहे हैं। खींचतान शुरु हो चुकी है और मुक़ाबला रोचक होने के पूरे आसार हैं। देखना है कौनसा पहलवान अपने तर्कों की बदौलत किसे पटखनी देता है, और रैफ़री के रूप में लाचार बने छात्र (जो केवल विरोध या समर्थन का शांतिपूर्ण प्रदर्शन भर कर सकते हैं) कब तक इस द्वंद्व के मैदान के धूल-धुएँ में इन दोनों पक्षों को दिखाई नहीं देते।
राजनीति के खिलाड़ियों की अच्छी शुरुआत हुई और उन्होंने तुरत-फ़ुरत संविधान में संशोधन करके आरक्षण विधेयक लागू करके इस फ़िक्ड मैच का टॉस जीत भी लिया था, किंतु मैच शुरु होने के पहले ही न्यायालय के आकाश से समीक्षा की बरसात हो गई और सब पानी हो गया। अब राजतीतिक गलियारों में हर दल बस इन समीक्षाओं के बादल छँटने की राह तक रहा है ताकि आरक्षण का रोमांचक खेल फिर से प्रारंभ हो सके। पंजाब चुनावों में ज़ोर का झटका धीरे से खा चुकी काँग्रेस के लिए अब उ.प्र चुनावों के ऐन पहले अपनी केंद्रीय सरकार की साख बचाने की नौबत आ गई है। न्यायालय को संविधान और क़ानूनों की समीक्षा का अधिकार है और यही अधिकार अब सरकार को कटखरे में खड़ा कर चुका है।
60-70 वर्ष पहले के दो रु. किलो के अनाज और आज के 20 रु. किलो के अनाज को देखकर यह कहना तो सही है कि मँहगाई बढ़ गई है, लेकिन इसी नीति पर चलते हुए यह कहना कि 1931 के आँकड़ों से अनुमान लगाकर आरक्षण भी लागू किया जा सकता है, इस पर न्यायालय की समीक्षा का प्रश्न चिह्न लग गया है? अब सरकार यदि बाध्य होकर पुन: ताज़ा आँकड़े इकट्ठा करे, तो हो सकता है कि एक अविश्वसनीय रिपोर्ट सामने आ जाए। डेढ़ दशक पहले जब सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण लागू हुआ था, उसके बाद से हर क्षेत्र में आरक्षण का महत्व बढ़ता ही गया है। पिछले 1-2 साल से तो अधिकांश लोग और समुदाय स्वयं को पिछड़ा साबित करने पर तुल गए हैं, और 8 प्रतिशत की विकास दर का दिव्य स्वप्न भी सरकार की प्राथमिकताओं में आरक्षण माँग रहा है। सरकार का तर्क है कि अन्य पिछड़ा वर्ग आर्थिक दृष्टि से भी बहुत पीछे है और उनके उत्थान हेतु उन्हें उच्च शिक्षा में आरक्षण दिया जाना चाहिए किंतु वर्तमान तथ्य ये हैं कि इस वर्ग के सबसे अधिक लोग दक्षिण राज्यों में किंतु भारत का ग़रीब तबका उत्तर-पूर्वी राज्यों में भरा है। और इस बात की गारंटी कौन लेगा कि केवल पिछड़ा वर्ग ही अपने बच्चों को उच्च शिक्षा में असमर्थ है, आज भी कई ऐसे कुलीन लोग हैं जो कंधों पर झोला और पैरों में चप्पल पहने दो जून की रोटी के लिए पसीना बहाते हैं, क्या उनको आरक्षण नहीं मिलना चाहिए। भई आरक्षण शब्द इतना ही प्यारा है तो उसे लागू करें लेकिन उसका आधार जाति को तो न बनाएँ। संविधान निर्माण के समय एक पवित्र मंशा के चलते आरक्षण की बात रखी गई थी, जो कालांतर में नेतागिरी की कुर्सी का एक अभिन्न पाया बन गई है।
राजनीति के खिलाड़ियों की अच्छी शुरुआत हुई और उन्होंने तुरत-फ़ुरत संविधान में संशोधन करके आरक्षण विधेयक लागू करके इस फ़िक्ड मैच का टॉस जीत भी लिया था, किंतु मैच शुरु होने के पहले ही न्यायालय के आकाश से समीक्षा की बरसात हो गई और सब पानी हो गया। अब राजतीतिक गलियारों में हर दल बस इन समीक्षाओं के बादल छँटने की राह तक रहा है ताकि आरक्षण का रोमांचक खेल फिर से प्रारंभ हो सके। पंजाब चुनावों में ज़ोर का झटका धीरे से खा चुकी काँग्रेस के लिए अब उ.प्र चुनावों के ऐन पहले अपनी केंद्रीय सरकार की साख बचाने की नौबत आ गई है। न्यायालय को संविधान और क़ानूनों की समीक्षा का अधिकार है और यही अधिकार अब सरकार को कटखरे में खड़ा कर चुका है।
60-70 वर्ष पहले के दो रु. किलो के अनाज और आज के 20 रु. किलो के अनाज को देखकर यह कहना तो सही है कि मँहगाई बढ़ गई है, लेकिन इसी नीति पर चलते हुए यह कहना कि 1931 के आँकड़ों से अनुमान लगाकर आरक्षण भी लागू किया जा सकता है, इस पर न्यायालय की समीक्षा का प्रश्न चिह्न लग गया है? अब सरकार यदि बाध्य होकर पुन: ताज़ा आँकड़े इकट्ठा करे, तो हो सकता है कि एक अविश्वसनीय रिपोर्ट सामने आ जाए। डेढ़ दशक पहले जब सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण लागू हुआ था, उसके बाद से हर क्षेत्र में आरक्षण का महत्व बढ़ता ही गया है। पिछले 1-2 साल से तो अधिकांश लोग और समुदाय स्वयं को पिछड़ा साबित करने पर तुल गए हैं, और 8 प्रतिशत की विकास दर का दिव्य स्वप्न भी सरकार की प्राथमिकताओं में आरक्षण माँग रहा है। सरकार का तर्क है कि अन्य पिछड़ा वर्ग आर्थिक दृष्टि से भी बहुत पीछे है और उनके उत्थान हेतु उन्हें उच्च शिक्षा में आरक्षण दिया जाना चाहिए किंतु वर्तमान तथ्य ये हैं कि इस वर्ग के सबसे अधिक लोग दक्षिण राज्यों में किंतु भारत का ग़रीब तबका उत्तर-पूर्वी राज्यों में भरा है। और इस बात की गारंटी कौन लेगा कि केवल पिछड़ा वर्ग ही अपने बच्चों को उच्च शिक्षा में असमर्थ है, आज भी कई ऐसे कुलीन लोग हैं जो कंधों पर झोला और पैरों में चप्पल पहने दो जून की रोटी के लिए पसीना बहाते हैं, क्या उनको आरक्षण नहीं मिलना चाहिए। भई आरक्षण शब्द इतना ही प्यारा है तो उसे लागू करें लेकिन उसका आधार जाति को तो न बनाएँ। संविधान निर्माण के समय एक पवित्र मंशा के चलते आरक्षण की बात रखी गई थी, जो कालांतर में नेतागिरी की कुर्सी का एक अभिन्न पाया बन गई है।
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